हर एक किसान परेशान | Farmer Problems Part 1- Blog 58

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🚜 हर एक किसान परेशान | Farmer Problems Part 1 - Blog 58

📌 कृषि देश की रीढ़ है, लेकिन जब रीढ़ ही टूटी हो तो देश कैसे सीधा खड़ा रह सकता है? चलिए जानते हैं – किसानों की असली परेशानी क्या है।


🌾 परिचय

भारत को “कृषिप्रधान देश” कहा जाता है, लेकिन विडंबना यह है कि सबसे ज़्यादा परेशान, सबसे ज़्यादा कर्ज़ में, और सबसे ज़्यादा उपेक्षित अगर कोई वर्ग है तो वह किसान है।
हर एक किसान परेशान है — मौसम से, बाजार से, सरकार से, और व्यवस्था से।


प्रमुख समस्याएँ जो किसान को अंदर से तोड़ देती हैं:

1. 🌧️ अनियमित मानसून और जल संकट

  • कभी सूखा, कभी बाढ़ — फसल का कोई भरोसा नहीं।

  • सिंचाई के लिए नहरें और ट्यूबवेल तो हैं, पर बिजली और पानी नहीं।

2. 💸 कर्ज़ का बोझ

  • बीज, खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर, मजदूरी — सब उधारी पर।

  • समय पर फसल न बिके या नुकसान हो जाए, तो किसान आत्महत्या तक कर लेता है।

3. 🧺 बाजार में फसल की उचित कीमत न मिलना (MSP की अनदेखी)

  • मेहनत से उगाई गई फसल औने-पौने दामों पर बिकती है।

  • बिचौलिये कमाते हैं, किसान हाथ मलता रह जाता है।

4. 📉 फसल बीमा योजना की असलियत

  • बीमा कंपनियाँ पैसा तो लेती हैं, लेकिन नुकसान के समय भुगतान नहीं करतीं।

  • आवेदन प्रक्रिया जटिल और पारदर्शिता की भारी कमी।

5. 🧑‍🌾 शिक्षा और जानकारी की कमी

  • आधुनिक खेती, जैविक खेती, बाजार भाव, सरकारी योजनाएँ — इनकी जानकारी किसान तक समय से नहीं पहुँचती।

  • ज़्यादातर किसान अब भी पुराने तरीकों पर निर्भर हैं।


📢 एक किसान की चुप आवाज़

“हम अन्नदाता हैं, पर खुद भूखे सोते हैं।
हम धरती माँ की सेवा करते हैं, लेकिन हमारी खुद की हालत बदतर है।”


⚖️ निष्कर्ष

यह सिर्फ शुरुआत है।
किसानों की समस्याएँ कई परतों में हैं और इन्हें समझना और हल करना पूरे देश की जिम्मेदारी है।
Blog Part 2 में हम बात करेंगे — "सरकारी योजनाएँ और ज़मीनी सच्चाई" की।


किसानों को अब खेती करना बंद कर देना चाहिए और केवल अपने परिवार के लायक उपजा कर बाकी ज़मीन को पड़त छोड़ देना चाहिए। जो लोग अपने बच्चों को डेढ़ लाख की मोटर साइकल, लाख का मोबाइल लेकर देने में एक बार भी नहीं कहते कि महँगा है, वे लोग किसानों की माँग पर बहस कर रहे है कि दूध और गेहूँ महँगा हो जाएगा। माॅल्स में जाकर अंधाधुंध पैसा उजाड़ने वाले गेंहूँ की कीमत बढ़ जाने से डर रहे हैं। तीन सौ रुपये किलो के भाव से मल्टीप्लैक्स के इंटरवल में पॉपकॉर्न खरीदने वाले मक्का के भाव किसान को तीन रुपये किलो से अधिक न मिलें इस पर बहस कर रहे है। एक बार भी कोई नहीं कह रहा कि मैगी, पास्ता, कॉर्नफ़्लैक्स के दाम बहुत हैं। सबको किसान का क़र्ज़ दिख रहा है और यह कि उस क़र्ज़ की माफी की माँग करके किसान बहुत नाजायज़ माँग कर रहा है। यह जान लीजिए कि किसान क़र्ज़ में आप और हमारे कारण डूबा है। उसकी फसल का उसको वाजिब दाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि उससे खाद्यान्न महँगे हो जाएँगे। 1975 में सोने का दाम 500 रुपये प्रति दस ग्राम था और गेंहू का समर्थन मूल्य किसान को मिलता था 100 रुपये। आज चालीस साल बाद गेंहू लगभग 1500 रुपये प्रति क्विंटल है मतलब केवल पन्द्रह गुना बढ़ा और उसकी तुलना में सोना आज तीस हज़ार रुपये प्रति दस ग्राम है मतलब 60 गुना की दर से महँगाई बढ़ी मगर किसान के लिए उसे पन्द्रह गुना ही रखा गया। ज़बरदस्ती, ताकी खाद्यान्न महँगे न हो जाएँ। 1975 में एक सरकारी अधिकारी को 400 रुपये वेतन मिलता था जो आज साठ हज़ार मिल रहा है मतलब एक सौ पचास गुना की राक्षसी वृद्धि उसमें हुई है। इसके बाद भी सबको किसान से ही परेशानी है। किसानों को आंदोलन करने की बजाय खेती करना छोड़ देना चाहिए। बस अपने परिवार के लायक उपजाए और कुछ न करे। उसे पता ही नहीं कि उसे असल में आज़ादी के बाद से ही ठगा जा रहा है।

किसान क्यों हिंसक हो गया है यह समझना होगा, जनता को भी और सरकार को भी। किसान अब मूर्ख बनने को तैयार नहीं है। बरसों तक किया जा रहा शोषण अंततः हिंसा को ही जन्म देता है। आदिवासियों पर हुए अत्याचार ने नक्सल आंदोलन को जन्म दिया और अब किसान भी उसी रास्ते पर है। आप क्या चाहते हैं कि आप समर्थन मूल्य के झाँसे में फँसे किसान के खून में सनी रोटियाँ अपनी इटालियन मार्बल की टॉप वाली डाइनिंग टेबल पर खाते रहें और जब किसान को समझ में आए सारा खेल तो वह विरोध भी नहीं करे। आपको पता है आपका एक सांसद साल भर में चार लाख की बिजली मुफ़्त फूँकने का अधिकारी होता है, लेकिन किसान का चार हजार का बिजली का बिल माफ करने के नाम पर आप टीवी चैनल देखते हुए बहस करते हैं। यह चेत जाने का समय है। कहिए कि आप साठ से अस्सी रुपये लीटर दूध और कम से कम साठ रुपये किलो गेंहू खरीदने के लिए तैयार हैं, कुछ कटौती अपने ऐश और आराम में कर लीजिएगा। नहीं तो कल जब अन्न ही नहीं उपजेगा तो फिर तो आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उस दाम पर खरीदेंगे ही जिस दाम पर वे बेचना चाहेंगी।
एक किसान की नजर

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